Soniya bhatt

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कृष्ण गोवर्धन पर्वत लीला

कृष्ण गोवर्धन पर्वत लीला १


        भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत अपनी ऊँगली पर धारण किया है और इंद्र का मान भंग किया है।

       नन्द गांव में इंद्र यज्ञ तैयारी :- 

        प्रभु नन्द गांव जब पहुंचे तो भगवान ने देखा की सारे नन्द गाँव में इंद्र यज्ञ की तैयार हो रही हैं। 56 भोग बनाये जा रहे हैं, 36 व्यंजन बना रहे हैं। कृष्ण ने नन्द बाबा से पूछा- बाबा आज ऐसा कोनसा उत्सव होने जा रहा हैं जिसकी सब तैयारी हो रही हैं।भगवान बोले की इस यज्ञ का फल क्या हैं? और यह किसतरह सम्पन होगा? आप मुझे बताइये।

        नन्द बाबा थोड़ी देर चुप रहे फिर बोले की बेटा! यह उत्सव भगवान इंद्र के लिए हो रहा हैं। चूँकि वर्षा के राजा इंद्र हैं। और जब बारिश होती हैं तो हमारी फसलों को पानी मिलता हैं। जिससे हम सब ब्रजवासी फलते फूलते हैं। क्योंकि जल के बिना जीवन संभव नही। और वर्षा बिना किसी का फलना फूलना सम्भव नही हैं। इंद्र हमारे सुख-दुःख का दाता हैं। इसलिए हम यह यज्ञ इंद्र भगवान के लिए कर रहे हैं।

        भगवान ने सोचा की घर में भगवान बैठा हैं और कर रहे हैं इंद्र की पूजा। भगवान बोले की इंद्र हमारे सुख दुःख का दाता नहीं हैं। सुख दुःख के दाता हैं हमारे कर्म।

        कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणौव प्रलीयते ।
        सुखं दुः खं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते ।।
       
        भगवान कहते हैं आप इंद्र यज्ञ बंद कर दो।  भगवान कहते हैं जो व्यक्ति जैसा कर्म करता हैं वैसा उसको फल मिल जाता हैं। इसमें इंद्र कुछ नही करता हैं। इंद्र का कोई लेना देना नही हैं।

        क्योंकि इंद्र को अभिमान हो गया था और भगवान को अभिमान पसंद नही हैं। भगवान चाहते हैं की मैं इंद्र को पाठ सिखाऊं।

        नन्द बाबा बोली की फिर हम किसकी पूजा करें? हमने जो 56 भोग बनाये हैं उनको कहाँ प्रयोग में लाएं?

        भगवान बोले की हमारे देवता हैं ये वन  वृन्दावन  गोवर्धन पर्व  हमारी गऊ माता। जिसने हमारी और गऊओं की आजीविका चलती हैं। आप ऐसा यज्ञ करें जिससे स्थानीय ब्राह्मण और गोवर्धन पर्वत संतुष्ट हो सके।

        कृष्ण की बात सुनकर नन्द बाबा बोले की बेटा- तुम कह रहे हो तो मैं स्थानीय ब्राह्मणों और गोवर्धन पर्वत के लिए एक यज्ञ और करवा देता हुँ। एक आयोजन और रख देता हुँ। पर तुम मुझे यह इंद्र यज्ञ करने दो। नही तो इंद्र भगवान नाराज हो जायेंगे।

        भगवान बोले की-पिताजी, विलम्ब ना कीजिये। शुभ काम में देरी कैसी। जैसा मैं कहता हुँ आप वैसा कीजिये। आप गोवर्धन पर्वत और स्थानीय ब्राह्मण को संतुष्ट कर दीजिये।
        आपने जो कुछ बनाया हैं- चावल, दाल, हलवा , पूरी , पकोड़ी , खीर, रसगुल्ला और लड्डू सभी ब्राह्मणो और गोवर्धन पर्वत को भोग लगाइये। सभी गोवो को सजाकर अच्छा चारा दीजिये। ब्राह्मणों को दान दीजिये। कुत्तों और चाण्डालों को भी प्रशाद दीजिये।
        और तुरंत ही गोवर्धन की पूजा प्रारम्भ कीजिये।

        इस प्रकार भगवान ने इन्द्र की पूजा बंद करवा कर गोवर्धन की पूजा करवाई हैं। सभी ने गोवर्धन पर्वत को भोग लगाया हैं। गोवर्धन पर्वत भी सभी व्यंजनों का और 56 भोग का बड़ा आनंद ले रहे हैं। सभी ने गोवर्धन को प्रणाम किया हैं। सभी यह देख कर की गोवर्धन पर्वत भोग लगा रहे हैं बड़े खुश हैं। क्योंकि इंद्र ने आज तक भोग नही लगाया था। गोवर्धन पर्वत में स्वयं भगवान श्री कृष्ण जाकर बैठे हैं। एक रूप से खुद पूजा कर रहे हैं। दूसरे रूप में उनकी ही पूजा हो रही हैं।
        बोलिए गोवर्धन महाराज की जय!!

        इंद्र का ब्रज पर कोप :- 

        जब इंद्र को पता चला की कृष्ण ने मेरी पूजा बंद करवा दी हैं तो नन्द बाबा आदि गोपों पर बहुत क्रोधित हुए। इंद्र को अपने पद का बड़ा घमंड था। उसने सोचा की मैं ही इस त्रिलोकी का ईश्वर हुँ। इंद्र ने क्रोध से तिलमिलाकर अपने सांवर्तक मेघो को ब्रज में वर्षा करने को कहा। इंद्र की आज्ञा मानकर प्रलयकारी मेघो ने मूसलाधार पानी बरसाकर सारे ब्रज को पीड़ित कर दिया। चारों और बिजली चमक रही हैं। बादल आपस में टकरा रहे हैं। तेज आंधी के साथ साथ बड़े बड़े ओले भी गिर रहे हैं। खम्बे के सम्मान मोटी-मोटी बुँदे गिर रही हैं। ग्वाल बाल , गोप, पशु पक्षी और बचे सभी ठण्ड से ठिठुरने लगे। सभी भगवान कृष्ण के पास आये हैं और बोले की भगवान हमारी रक्षा करो। भगवान मन में सोचते हैं की में इस ब्रज का रक्षक हुँ और यह सारा व्रज मेरे आश्रित है। मैं अपनी योगमाया से इसकी रक्षा करूँगा।

        आज ब्रजवासी कह रहे हैं हे गोपाल जबसे हम आपके चरणों में आये हैं तबसे हमारा भाग्य खुल गया हैं।

        (गुरुदेव कहते है यदि जीव का दुर्भाग्य हैं और हम उसे सदभाग्य में बदलना चाहे तो केवल भगवान ही बदल सकते हैं। प्रभु की शरण में जाइये।)
        आज ब्रजवासी जब भगवान के चरणों में आये तो सभी ने कहा की लाला हमारी रक्षा करो। भगवान आगे-आगे भगवान हैं और पीछे-पीछे ब्रजवासी हैं। सभी अपने गऊ धन को लेकर जा रहे हैं। अपने ही स्वरूप गिरिराज महाराज के पास पहुंचे तो भगवान ने गिरिराज महाराज को प्रणाम किया और अपने बांय हाथ की कनिष्ठा ऊँगली के ऊपर गिरिराज महाराज को धारण कर लिया।

        बोलिए गिरधारी भगवान की जय।

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